Wednesday, January 12, 2011

किसे अब ये हाल बतायें

मँहगाई की ही तो मार है,
जेब में बस रुपये चार है,
सॅलरी में अब कहाँ उछाल है,
जीवन जीना तो लगता अब जंजाल है!

ग़रीबी रेखा अब ताक झाक रही है,
किसे कैसे मापे ये सवाल पूछ रही है,
खाने में अब प्याज़ कहाँ है,
और नन्ही बिटिया भी अब होने को जवां है!

किस तरह हम अब अपना हाल बतायें,
कैसे ज़िम्मेदारीओं से मुँह चुरायें,
लगता है की प्याज़ की जगह खुद ही पीस जायें,
कब तक रसोई की ज़िम्मेदारियों पर हीं आँसू बहायें!

खो रहे हैं हर सपने को,
देख रहे हैं मायूस हर अपने को,
थोड़ी सॅलरी का क्या अचार बनायें,
किस सरकार को जा कर ये हाल बतायें!

बोलते हैं मंहगाई तो बढ़ती ही है,
प्राइस तो धीरे धीरे चढ़ता ही है,
तुम अब इसे नहीं बहाना बनाना,
पाँच साल में एक बार हमें जाकर वोट दे आना!

एक तरफ मारते हैं पेट पर लात,
दूसरी तरफ करते हैं विकास की बात,
हर तरक्की की ग़रीब ही क्यों कीमत चुकाये,
क्यों नहीं हम अपना कड़ा विरोध जताएँ!
 
पर सुनता है कौन इन बातों को,
किसे सुनना है इन ज़ज़्बातों को,
हम तो बस ऐसे ही बकवास करते हैं,
कुछ हो जाये इसलिए आपसे संवाद करते हैं!  

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